आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर सुनसान के सहचरश्रीराम शर्मा आचार्य
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सुनसान के सहचर
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बादलों तक जा पहुँचे
आज प्रात:काल से ही वर्षा होती रही। यों तो पहाड़ों की चोटियों पर फिरते हुए बादल रोज ही दीखते, पर आज तो वे बहुत ही नीचे उतर आये थे। जिस घाटी को पार किया गया वह भी समुद्र तल से १० हजार फुट की ऊँचाई पर थी। बादलों को अपने ऊपर आक्रमण करते, अपने को बादल चीर कर पार होते देखने का दृश्य मनोरंजक भी था और कौतूहलवर्धक भी। धुनी हुई रुई के बड़े पर्वत की तरह भाप से बने ये उड़ते हुए बादल निर्भय होकर अपने पास चले आते। घने कुहरे की तरह एक सफेद अन्धेरा अपने चारों ओर घिर जाता, कपड़े में नमी आ जाती और शरीर भी गीला हो जाता। तब वर्षा होती तो पास में ही दिखता कि किस प्रकार बादल गलकर पानी की बूंदों में परिणित होता जा रहा है।
अपने घर गाँव में जब हम बादलों को देखा करते थे, तब वे बहुत ऊँचे लगते थे। नानी कहा करती थीं कि जहाँ बादल हैं, वहीं देवताओं का लोक है। यह बादल देवताओं की सवारी है, इन्हीं पर चढ़कर वे इधर-उधर घूमा करते हैं और जहाँ चाहते हैं पानी वर्षा देते हैं। बचपन में कल्पना किया करता था कि काश मुझे भी एक बादल चढ़ने को मिल जाता तो कैसा मजा आता, उस पर चढ़कर चाहे जहाँ घूमने निकल जाता। उन दिनों मेरी दृष्टि में बादल की कीमत बहुत थी। हवाई जहाज से भी। अनेक गुनी अधिक। जहाज चलाने को तो उसे खरीदना, चलाना, तेल जुटाना सभी कार्य बहुत ही कठिन थे, पर बादल के बारे में तो कुछ करना ही न था, बैठे कि चाहे जहाँ चल दिये।
आज बचपन की कल्पनाओं के समान बादलों पर बैठकर उड़े तो नहीं, पर उन्हें अपने साथ उड़ते तथा चलते देखा तो प्रसन्नता बहुत हुई। हम इतने ऊँचे चढ़े कि बादल हमारे पाँवों को छूने लगे। सोचता हूँ बड़े कठिन लक्ष्य जो बहुत ऊँचे और दूर मालूम पड़ते हैं, मनुष्य इसी तरह प्राप्त कर लेता होगा, पर्वत चढ़ने की कोशिश की तो बादल के बराबर पहुँच गया। कर्तव्य कर्म का हिमालय भी इतना ही ऊँचा है। यदि हम उस पर चढ़ते चलें तो साधारण भूमिका में विचरण करने वाले शिश्नोदर परायण लोगों की अपेक्षा वैसे ही अधिक ऊँचे उठ सकते हैं, जैसे कि निरन्तर चढ़ते-चढ़ते दस हजार फुट ऊँचाई पर आ गये।
बादलों को छूना कठिन है; पर पर्वत के उच्च शिखर के तो वह समीप ही होता है। कर्तव्य परायणता की ऊँची मात्रा हमें बादलों जितना ऊँचा उठा सकती है और जिन बादलों तक पहुँचना कठिन लगता है, वे स्वयं ही खिंचते हुए हमारे पास चले आते हैं। ऊँचा उठाने की प्रवृत्ति हमें बादलों तक पहुँचा देती है, हमारे समीप तक स्वयं उड़कर आने के लिए विवश कर देती है। बादलों को छूते समय ऐसी-ऐसी भावनाएँ मन में उठती रहीं, पर बेचारी भावनाएँ अकेली क्या करें?सक्रियता का बाना उन्हें पहनने को न मिले तो वे एक मानस तरंग मात्र ही रह जाती हैं।
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